Sardar Hari Singh Nalwa in hindi || maharaja Ranjeet Singh ||



कौन थे सरदार हरि सिंह 'नलवा' ?

आखिर माँ बच्चों से क्यों कहती थी, सो जा वरना हरि सिंह 'नलवा' आ जायेगा।

इतनी पतिष्ठा और प्रसिद्धि के बावजूद भी आखिर क्यों इतिहास में ये गुमनाम हैं ?

इन सभी सवालों का जवाब इस लेख में हम आपको देने एक प्रयास कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं यह लेख आपको पढ़कर अच्छा लगेगा और कुछ महत्वपूर्ण जानकारी भी हासिल होगी।



प्रारम्भिक जीवन :-

आइए इस लेख में हम महाराणा रणजीत सिंह के एक महान कुशल सेनापति सरदार हरि सिंह 'नलवा' के बारे में कुछ विशेष प्रकार की महत्वपूर्ण जानकारी हासिल करते हैं। जो ऐतिहासिक एवं जिज्ञासा की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण विषय है। सरदार हरि सिंह का जन्म 29 अप्रैल 1791 ई० गुजरांवाला (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरुदयाल सिंह एवं माता का नाम धर्मा कौर था। बचपन में उन्हें प्यार से लोग 'हरिया' कह कर पुकारते थे। इनका प्रारंभिक जीवन बड़ी ही कठिनाइयों के साथ व्यतीत हुआ इन्होंने विभिन्न प्रकार की पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का डटकर सामना किया। जब इनकी उम्र 7 वर्ष की थी तब इनके पिता का देहांत हो गया। 



सन 1805 ई० में, बसंत उत्सव पर महाराणा रणजीत सिंह द्वारा आयोजित प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में सरदार हरि सिंह 'नलवा' ने भाला भेक, तीर चलाने एवं घुड़सवारी जैसी प्रतियोगिता में अपनी प्रतिभा का कुछ इस प्रकार से परिचय दिया जिससे महाराजा रणजीत सिंह अत्यधिक प्रभावित हो गये। परिणामस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह को इन्हें अपनी सेना में भर्ती करने का फैसला लेना पड़ा। अपनी प्रतिभाशील गुणों के कारण शीघ्र ही सरदार हरि सिंह महाराजा के सभी विश्वासपात्र सेनानायकों में से एक विश्वासपात्र सेनानायक बन गये। 



"बाघमार" की उपाधि से सुशोभित होने वाला महान योद्धा-




एक बार जब हरि सिंह जंगल गए हुए थे तब वहां पर अकस्मात किसी शेर ने उन पर आक्रमण कर दिया तब उस वक्त हरि सिंह ने बिना भयभीत हुए अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए अपने प्राणों की रक्षा की थी तथा शेर के जबड़े को चीरकर उसे मार गिराया था। तभी से हरि सिंह को "बाघमार" की उपाधि प्राप्त हुई तथा जब इनकी इस बहादुरी का पता महाराजा रणजीत सिंह को चला तो उन्होंने हरि सिंह की बहादुरी को सराहा और कहा कि "तुम राजा नल जैसे वीर योद्धा हो"। तभी से सरदार हरि सिंह, "नलवा" के नाम से प्रसिद्ध हो गए। बाद में इन्हें "सरदार" की उपाधि से भी सुशोभित किया गया था। 



आखिर माँ बच्चों से क्यों कहती थी, सो जा वरना हरि सिंह 'नलवा' आ जायेगा

सरदार हरि सिंह 'नलवा' का खौफ उस वक्त ठीक उसी प्रकार फैला था जिस प्रकार आज के समय अमेरिका चीन व रूस जैसी महान शक्तियों का है। सरदार हरि सिंह 'नलवा' के नाम से ही कई शासक व उनके सेनापति भयभीत हो उठते थे। "द डॉन" (एक पाकिस्तानी अखबार) में एक पत्रकार (माज़िद शेख़) का लेख पाया गया, जिसमें वह लिखते हैं कि "बचपन में मेरे पिता हरि सिंह 'नलवा' की कहानियां सुनाया करते थे, कि कैसे पठान युसुफ़ज़ई औरतें अपने बच्चों को यह कहकर डराती थी, कि "चुप सा, हरि राघले" अर्थात चुप हो जा वरना हरि सिंह आ जायेगा।"


योद्धा के रूप में कार्य :-

एक समय ऐसा था कि संपूर्ण विश्व में एकमात्र अफगान ही ऐसी ताकत थी जिसे परास्त करना तो दूर की बात कोई सामने आने की हिम्मत तक न करता था परंतु वक्त ऐसा पलटा और भारत में एक ऐसे सरदार का जन्म हुआ जिसने अपनी बुद्धिमत्ता एवं बहादुरी से संपूर्ण विश्व अफ़ग़ानों सहित सभी राजाओं को चकाचौंध कर दिया। इस सरदार का नाम सरदार हरि सिंह 'नलवा' था। जिसके एकमात्र नाम से ही अफगान सहित कई राष्ट्र भयभीत हो उठते थे। हरि सिंह 'नलवा' के भय से अफगानियों में त्राहि त्राहि मच गई थी, जब उनको पता चलता था की नलवा आ रहा है तो सभी लोग अपना-अपना घर और शहर छोड़ कर भाग जाया करते थे। अफ़ग़ानी घुटनों के बल बैठ के जान सलामती की दुआ मांगते थे। हरि सिंह ने सभी अफ़ग़ानियो को आदेश दिया कि सभी सलवार पहन कर आएंगे तभी जीवन दान दिया जायेगा और सभी अफगानी सलवार पहन कर घुटनों के बल बैठ कर जीवन दान की भीख मांगने लगते थे और उनको जीवन दान इसी शर्त पर मिलता था कि अगर कभी पजामा पहने देख लिया तो गर्दन अलग कर दी जाएगी। उन्होंने अफ़गानों को नाकों चने चबवा दिए और उन्हें यकीन दिलाया कि भारत में इस समय एक ऐसी शक्ति है जो अजेय एवं निडर है। अफ़गानों को हरि सिंह की बहादुरी का तब एहसास हुआ जब हरि सिंह ने खैबर दर्रे से अफ़गानों का भारत में प्रवेश पर अंकुश लगाया। इसी दर्रे के माध्यम से यूनानी, हूड, शक, पठान, तुर्क, मुगल आदि सभी विदेशी शत्रु भारत पर आक्रमण करते थे। इस दर्रे से प्रवेश न मिलने से अफ़गानों को मानसिक एवं शारीरिक आघात पहुंचा। यह वही अफगान थे जो एक समय अजेय माने जाते थे जिनकी रीड़ की हड्डी के सरदार हरि सिंह 'नलवा' ने टुकड़े-टुकड़े कर दिए। अब अफगानों की भारत में प्रवेश करने की संभावनाएं लगभग समाप्त हो चुकी थी। 


इसके बाद हरि सिंह को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया गया तथा कश्मीर में इनके द्वारा एक नया सिक्का ढाला गया जो "हरि सिंगी" के नाम से विख्यात हुआ। काबुल, कश्मीर, पेशावर जैसे महान क्षेत्रों को विजित कर सरदार हरि सिंह 'नलवा' ने यह साबित कर दिया था कि वास्तव में विश्व में कोई ऐसी ताकत है जो किसी को भी पराजित कर सकती है। इनकी प्रशंसा में अंग्रेजों ने इनकी तुलना नेपोलियन से कई बार की है। महाराजा रणजीत सिंह के विजय अभियानों से सरदार हरि सिंह 'नलवा' की बहादुरी का बखूबी परिचय मिलता है। यह एक निडर एवं बहादुर सेनानायक थे। जो किसी भी विकट परिस्थिति में बिना घबराए शत्रु का सामना करने को तत्पर रहते थे एवं उसे परास्त करने में अपनी जी जान लगा देते थे।


सरदार हरि सिंह 'नलवा' की महत्वपूर्ण लड़ाइयां :-

सरदार हरि सिंह 'नलवा' ने अपने जीवनकाल में बहुत से युद्ध लड़े और उनमें अपनी विजय का पताका लहराया। इन सभी लड़ाइयों में सरदार हरि सिंह 'नलवा' की कुछ महत्वपूर्ण लड़ाइयां निम्लिखित हैं : -

  • 1807 ई० में हरि सिंह ने 'कसूर के युद्ध' का नेतृत्व किया जिसमें अफ़गानों की भीषण पराजय हुई ।
  • 1808 ई० में 'सियालकोट का युद्ध'
  • 1813 ई० में हरि सिंह ने 'अटक के युद्ध' में हिस्सा लिया तथा वहां भी अपनी बहादुरी का कुशलता से परिचय दिया एवं शत्रुओं को पीठ दिखा कर भागने पर मजबूर कर दिया। सिखों की दुर्रानी पठानों के खिलाफ यह पहली जीत थी। 
  • 1818 ई० में हरि सिंह के नेतृत्व में 'मुल्तान के युद्ध' में  विजय प्राप्त की गई। 
  • 1819 ई० में 'शोपियान का युद्ध' 
  • 1821 ई० में 'मंगोल का युद्ध'
  • 1823 ई० में 'नौसेरा का युद्ध' 
  • 1824 ई० में 'श्रीकोट या युद्ध' 
  • 1827 ई० में 'साईडू का युद्ध' 
  • 1837 ई० में 'पेशावर का युद्ध' 
  • 1837 ई० में 'जमरूद का युद्ध'



सरदार हरि सिंह नलवा के अंतिम दिन :-




1837 ई० का 'जमरूद का युद्ध' सरदार हरि सिंह 'नलवा' का अंतिम युद्ध था। 1837 ई० में अफगान सेना ने जब मोहम्मद फिरोज खान के नेतृत्व में जमरूद के किले पर कब्जा कर लिया था तभी विपक्ष में अफ़गानों की सैकड़ों की तादाद में संख्या थी तथा उसका सामना करने के लिए हरि सिंह के पास मात्र 600 ही सैनिकों की टुकड़ी थी फिर भी हरि सिंह ने वीरता पूर्वक उनका सामना किया और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया लेकिन अकस्मात एक प्राणघातक हमले से हरि सिंह 'नलवा' घायल हो गए। घायल होने के बावजूद भी हरि सिंह अफ़गानों से लड़ते रहे और 30 अप्रैल 1837 ई० को जमरूद में (जो वर्तमान में पाकिस्तान में है) वीरगति को प्राप्त हो गए। हरि सिंह की मृत्यु से सिक्ख साम्राज्य को एक बड़ा झटका लगा और महाराजा रणजीत सिंह काबुल को अपने कब्जे में लेने का सपना अधूरा का अधूरा ही रह गया। अफ़ग़ानों को जिन्हें साम्राज्य का "कब्रगाह" कहा जाता था उनके साथ सरदार हरि सिंह ने 20 भीषण युद्ध लड़े थे और सभी में अपनी विजय का पताका लहराया। कई इतिहासकारों द्वारा यह उल्लेख किया गया कि महाराजा रणजीत सिंह हरि सिंह की लड़ाइयां सभी को बड़े गर्व से सुनाते और इतना ही नहीं कश्मीर से शालों को मंगाकर हरि सिंह की लड़ाइयों को शाल पर पेंट भी करवाया।



सरदार हरि सिंह 'नलवा' की बहादुरी एवं निडरता का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने 2013 ई० में एक डाक टिकट जारी किया था। इन्हें इतिहास में शेर-ए-पंजाब के नाम से भी जाना जाता है।



सरदार हरि सिंह 'नलवा' का भारतीय इतिहास में ससम्मान एक महत्वपूर्ण स्थान है। अगर विश्व के सभी श्रेष्ठ सिक्ख योद्धाओं की बात की जाये तो  सरदार हरि सिंह 'नलवा' का नाम न आये ऐसा असम्भव है। वर्ष 2014 ई० में ऑस्ट्रेलिया की एक पत्रिका "बिलिनीयर" ने इतिहास के सबसे महान विजेताओं की सूची जारी की जिसमें "सरदार हरि सिंह नलवा" का नाम सबसे ऊपर था। कई इतिहासकारों का यह मानना है कि उत्तरी पश्चिमी पाकिस्तान का हिस्सा जो कि हरि सिंह 'नलवा' के द्वारा जीता गया था अगर हरि सिंह 'नलवा' इन पर विजय प्राप्त न कर पाते तो यह वर्तमान में अफगानिस्तान राष्ट्र का हिस्सा होता और वर्तमान में भी इतिहास की तरह अफगानिस्तानियों की  प्रत्येक दिन घुसपैठ जारी रहती। परन्तु फिर भी इतनी महान उपलब्धियां हासिल करने के बावजूद यह नाम (सरदार हरि सिंह 'नलवा') इतिहास के पन्नों में गुमनाम है। ब्रिटिश, रूस, फ्रांस जैसी महान सैन्य शक्तियों की विफलताओं के चर्चे तो इतिहास के पन्नों में देखने को मिल जाते हैं परन्तु इनके नाम की चर्चा कहीं देखने को नहीं मिलती है। 


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