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यह लेख भारतीय दंड संहिता 1860, की धारा 84 की व्याख्या पर प्रकाश डालता है, यह धारा ऐसे व्यक्तियों से सम्बंधित है जो मानसिक रूप से पीड़ित एवं ऐसे व्यक्ति जो यह भेद करने में असमर्थ हैं कि क्या उनके लिये उचित अथवा क्या कानून के विरुद्ध है ऐसे व्यक्तियों को अपराधिक दायित्वों से छूट प्राप्त होती है।
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 84 उन मामलों से संबंधित है जहां कोई व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ रहते हुए कोई कार्य करता है, जिसमें उसे आपराधिक दायित्व से छूट प्राप्त होती है। इस धारा के अनुसार जो व्यक्ति मानसिक बीमारी से पीड़ित है तथा उस कार्य की प्रकृति को समझने में असमर्थ है जो वह करने जा रहा है तब इस स्थिति में उसे आपराधिक दायित्वों से मुक्त रखा जायेगा।
इस धारा के आवश्यक तत्व :-
1.कृत्य किसी विकृत चित्त के व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए।
2. कृत्य ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए जो व्यक्ति कार्य की प्रकृति को जानने में अक्षम हो।
3. किया गया कार्य गलत या कानून के विपरीत होना चाहिए।
4. अक्षमता मन की अस्वस्थता का कारण होना चाहिए।
5. मन की अस्वस्थता कार्य करते समय होनी चाहिए।
आर बनाम अर्नोल्ड 1724, यह मामला इस संहिता की धारा 84 के महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मामलों में से एक है। इस मामले के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अच्छे और बुरे के बीच अंतर नहीं कर सकता है और वह कार्य की प्रकृति को समझने में अक्षम है, तो वह खुद के बचाव के लिए इस धारा का सहारा ले सकता है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 84 से संबंधित अगर मामलों की बात करें तो उन मामलों में से एक प्रसिद्ध मामला एम नाटन का मामला है जो 1843 में घटित हुआ था, इस मामले में डेनियल एम नाटन ने ब्रिटिश प्रधान मंत्री की हत्या करने का प्रयास किया, लेकिन प्रधानमंत्री के बजाय उनके सचिव की हत्या कर दी। इस मामले ने यह सवाल उठाया कि क्या मानसिक बीमारी से पीड़ित एक अभियुक्त को उसके कार्यों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अदालत ने चिकित्सा संबंधी सबूतों पर विचार किया तथा उसके बाद इस निर्णय पर पहुंचे कि एक व्यक्ति को तब तक समझदार माना जा सकता है जब तक यह साबित न हो जाये कि वह अपराध के समय मानसिक बीमारी के तहत काम कर रहा था। अपने कार्य की प्रकृति और गुणवत्ता को समझने में असमर्थ था। वह यह भी नहीं जानता था कि जो वह कार्य कर रहा है वह कानून के विरुद्ध है। इस मामले के ये सभी नियम एम नाटन के नियम के नाम से जाने जाते हैं।
एक अन्य मामला दयाभाई छगनभाई ठक्कर बनाम गुजरात राज्य (1964) के मामले में न्यायालय द्वारा यह आदेश पारित हुआ कि रुक-रुक कर या आंशिक पागलपन भी धारा 84 के तहत एक वैध बचाव हो सकता है। इस फैसले के अनुसार अगर अपराध करते समय आरोपी मानसिक बीमारी से पीड़ित था तथा वह अपने कृत्य की प्रकृति को समझने में असमर्थ था, वह चित्त की अस्वस्थता की रक्षा का हकदार होगा।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुरेंद्र मिश्रा बनाम झारखंड राज्य (2009) के वाद में इस बात पर जोर दिया गया कि मानसिक अस्वस्थता के बचाव को साबित करने का भार आरोपी पर होगा। अदालत ने कहा कि केवल मानसिक विकार का अस्तित्व ही किसी व्यक्ति को आपराधिक जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करता है अपितु यह सिद्ध होना अति आवश्यक है कि अभियुक्त, मानसिक विकार के कारण, अपराध की प्रकृति और परिणामों को समझने या अपराध के समय सही और गलत के बीच अंतर करने में असमर्थ था।
एक और प्रसिद्ध मामला जिसने धारा 84 की व्यख्या को विस्तृत किया, यह कर्नाटक राज्य बनाम कृष्णप्पा (2000) का मामला है। इस मामले में मानसिक बीमारी से पीड़ित एक व्यक्ति ने मानसिक तनाव के दौरान अपनी पत्नी की हत्या कर दी। अदालत ने कहा कि चित्त की अस्वस्थता के बचाव के सफल होने के लिए, यह साक्ष्य दिया जाना अति आवश्यक है कि अभियुक्त अपने कार्य की प्रकृति को जानने में असमर्थ था। अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया कि सबूत का भार अभियुक्त पर है।
एक अन्य वाद श्रीकांत आनंद राव भोसले बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2002, में अपराध करते समय अपीलकर्ता के पागलपन की दलील उसके बचाव में दी गई थी। एक आरोपी पैरानॉयड सिज़ोफ्रेनिया के रोग से पीड़ित था। आरोपी के मानसिक रोग का नियमित इलाज चल रहा था। घटना से पहले और बाद में मानसिक अस्वस्थता का आरोपी ने सहारा लिया। इस प्रकार, वह (अपीलार्थी) संहिता की धारा 84 के लाभ का हकदार था।
डरहम नियम: - डरहम बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका में, आरोपी पर घर तोड़ने का आरोप लगाया गया था और उसने अपने बचाव में पागलपन का सहारा लिया था। आरोपी घटना के समय मानसिक रोग से ग्रसित था। वह गैरकानूनी के लिए जिम्मेदार होगा और अगर इस तरह के मानसिक विकार और अधिनियम के बीच कोई आकस्मिक संबंध नहीं है। इस नियम का अर्थ है कि मानसिक विकार और क्रिया के बीच एक संबंध होना अवश्य चाहिए।
आईपीसी की धारा 84 की व्याख्या उपर्युक्त मामलों द्वारा विस्तृत और उसकी सीमा को समझने का प्रयास किया गया। उपर्युक्त सभी मामलों के निर्णय अपराध के समय अभियुक्त की मानसिक स्थिति के मूल्यांकन की आवश्यकता पर जोर देते हैं और अभियुक्त को यह साबित करने पर भी जोर देते हैं कि वे अपने कार्यों की प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ थे या मानसिक बीमारी के कारण यह कानून के विरूद्ध था। अतः उपर्युक्त मामलों के निर्णयों द्वारा यह साबित हो जाता है कि अगर कोई व्यक्ति मानसिक बीमारी से पीड़ित है तो वह आपराधिक न्यायिक अभिक्रिया से मुक्त कर दिया जायेगा।