महाराणा प्रताप : एक संक्षिप्त परिचय:-
महाराणा प्रताप के नाम से विख्यात बहादुर, दृढ़संकल्पी एवं दूरदर्शी राजपूताना राजघराने से संबंध रखने वाले सम्राट महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई० को कुम्भलगढ़, राजस्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह एवं माता का नाम रानी जीवत कँवर है, कहीं-कहीं इनकी माता का नाम जैवन्ताबाई भी पाया गया है। इनकी माता पाली के सोनगरा राजपूत अखैराज की पुत्री थीं। प्रताप का बचपन का नाम 'कीका' था। मेवाड़ के राणा उदयसिंह द्वितीय की 33 संतानें थीं। उनमें प्रताप सिंह सबसे बड़े थे। महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ग्यारह विवाह किये थे। स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण उनकी विशेषता थी। ये हिन्दू धर्म को मानने वाले शासक थे। इनकी राज्य सीमा मेवाड़ तक सीमित थी। इन्होंने अपनी राजधानी उदयपुर स्थापित की। इनका शासनकाल (1568ई०-1597ई०) तक रहा। ये सिसोदिया राजवंश से सम्बंध रखते थे। ज्यादा अधिक समय तक ये शासन तो नहीं कर पाये परन्तु फिर भी इन्होंने 29 वर्ष तक शासन किया। जब तक ये जीवित रहे दुश्मनों को नाकों चने चबवा दिये। शत्रु इनके नाम से ही कांप उठते थे। अकबर महान के नाम से विख्यात मुग़ल सम्राट अकबर ने भी इनके सामने घुटने टेक देने की सोच ली थी। भारतीय इतिहास में वीरता और दृढ़ प्रतिज्ञा के लिए अमर है। 29 जनवरी, 1597 ई० को राजपूत सम्राट महाराणा प्रताप का देहांत हो गया। वह तिथि भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित की गयी है, जब मेवाड़ की शौर्य-भूमि पर 'मेवाड़-मुकुट मणि' राणा प्रताप का जन्म हुआ। वे अकेले ऐसे वीर थे, जिसने मुग़ल बादशाह अकबर की अधीनता किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं की। वे हिन्दू कुल के गौरव को सुरक्षित रखने में सदा तल्लीन रहे।
राज्याभिषेक:-
जब महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ उस समय दिल्ली पर मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था। हिन्दू राजाओं की शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिन्दू राजाओं को अपने नियंत्रण में लाना, यह मुग़लों की नीति थी। अपनी मृत्यु से पहले राणा उदयसिंह ने अपनी सबसे छोटी पत्नी के बेटे जगमल को राजा घोषित किया, जबकि प्रताप सिंह जगमल से बड़े थे। प्रताप सिंह अपने छोटे भाई के लिए अपना अधिकार छोड़कर मेवाड़ से निकल जाने को तैयार थे, किंतु सभी सरदार राजा के निर्णय से सहमत नहीं हुए। अत: सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमल को सिंहासन का त्याग करना पड़ेगा। महाराणा प्रताप ने भी सभी सरदार तथा लोगों की इच्छा का आदर करते हुए मेवाड़ की जनता का नेतृत्व करने का दायित्व स्वीकार किया। इस प्रकार बप्पा रावल के कुल की अक्षुण्ण कीर्ति की उज्ज्वल पताका, राजपूतों की आन एवं शौर्य का पुण्य प्रतीक, राणा साँगा का यह पावन पौत्र 1 मार्च 1573ई० को सिंहासनारूढ़ हुआ।
महाराणा प्रताप और चेतक:-
भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट उंचे हाथी के मस्तक तक छलांग लगा सकता था। हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊँचाई तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुग़ल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुग़ल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। महाराणा प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी।
हल्दीघाटी का युद्ध:-
18 जून, 1576ई० को प्रातः भारत के वर्तमान राजस्थान में लड़ी गई हल्दीघाटी की लड़ाई, मुगल साम्राज्य और राजपूत राज्यों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। मुग़लों की सेना की ओर से मानसिंह ने नेतृत्व किया था। इसने मुगल सम्राट अकबर की सेनाओं को मेवाड़ के राजपूत शासक महाराणा प्रताप सिंह के विरुद्ध खड़ा कर दिया। अपनी पीली मिट्टी के नाम पर प्रसिद्ध हल्दीघाटी में दोनों सेनाओं के बीच भीषण लड़ाई हुई। संख्या में कम होने के बावजूद, महाराणा प्रताप ने असाधारण वीरता और नेतृत्व का प्रदर्शन किया और अपनी सेना का आगे बढ़कर नेतृत्व किया। हालाँकि राजपूतों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी, लेकिन अंततः मुगल अपनी बेहतर तोपखाने और रणनीति के कारण विजयी हुए। इस लड़ाई का इस क्षेत्र पर स्थायी प्रभाव पड़ा, जिससे मुगल नियंत्रण मजबूत हुआ और यह विदेशी प्रभुत्व के खिलाफ राजपूत प्रतिरोध का भी प्रतीक था। इस युद्ध में मुग़ल सम्राट की विजय तो हो गयी परन्तु इस जीत से भी मुग़ल सम्राट को अत्यधिक आघात पहुँचा।
सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके राणा प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न सकेगी। महाराणा प्रताप ने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक पूरी की। राणा प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न मिली। फिर भी, उन्होंने अपनी थोड़ी सी सेना की सहायता से मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि अन्त में अकबर को युद्ध बन्द कर देना पड़ा। इनकी बहादुरी की आज भी मिसालें दी जाती हैं। हार के बावजूद भी इनका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है।